कितने आँसुओं से भीगी है यह हँसी पी कर कितना अपमान कितना अँधेरा ठेल कर फूटी है यह दूधिया उजास हँस रहा आदमी हताशा को धकिया लग रहा कितना पूरंपूर मोहित हूँ भरपूर मैं तो - जीवन की इस कला पर।
हिंदी समय में प्रेमशंकर शुक्ल की रचनाएँ